Saturday, August 6, 2016

ओशो का वह प्रवचन, जिससे ईसायत तिलमिला उठी थी और अमेरिका की रोनाल्ड रीगन सरकार ने उन्हें हाथ-पैर में बेडि़यां डालकर गिरफ्तार किया और फिर मरने के लिए थेलियम नामक धीमा जहर दे दिया था। इतना ही नहीं, वहां बसे रजनीशपुरम को तबाह कर दिया गया था

ओशो का वह प्रवचन, जिसपर
तिलमिला उठी थी अमेरिकी सरकार और दे दिया जहर
ओशो का वह प्रवचन, जिससे ईसायत
तिलमिला उठी थी और अमेरिका की रोनाल्ड रीगन
सरकार ने उन्हें हाथ-पैर में बेडि़यां डालकर गिरफ्तार
किया और फिर मरने के लिए थेलियम नामक
धीमा जहर दे दिया था। इतना ही नहीं, वहां बसे
रजनीशपुरम को तबाह कर दिया गया था और
पूरी दुनिया को यह निर्देश भी दे दिया था कि न
तो ओशो को कोई देश आश्रय देगा और न ही उनके
विमान को ही लैंडिंग की इजाजत दी जाएगी। ओशो से
प्रवचनों की वह श्रृंखला आज भी मार्केट से गायब
हैं।
ओशो:
जब भी कोई सत्य के लिए प्यासा होता है, अनायास
ही वह भारत में उत्सुक हो उठता है। अचानक पूरब
की यात्रा पर निकल पड़ता है। और यह केवल आज
की ही बात नहीं है। यह उतनी ही प्राचीन बात है,
जितने पुराने प्रमाण और उल्लेख मौजूद हैं। आज से
2500 वर्ष पूर्व, सत्य की खोज में पाइथागोरस
भारत आया था। ईसा मसीह भी भारत आए थे।
ईसामसीह के 13 से 30 वर्ष की उम्र के बीच
का बाइबिल में कोई उल्लेख नहीं है। और
यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्योंकि 33 वर्ष
की उम्र में तो उन्हें सूली ही चढ़ा दिया गया था।
तेरह से 30 तक 17 सालों का हिसाब बाइबिल से
गायब है! इतने समय वे कहां रहे? आखिर बाइाबिल में
उन सालों को क्यों नहीं रिकार्ड किया गया? उन्हें
जानबूझ कर छोड़ा गया है, कि ईसायत मौलिक धर्म
नहीं है, कि ईसा मसीह जो भी कह रहे हैं वे उसे भारत
से लाए हैं।
यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक
यहूदी की तरह जन्मे, यहूदी की ही तरह जिए और
यहूदी की ही तरह मरे। स्मरण रहे कि वे ईसाई
नहीं थे, उन्होंने तो-ईसा और ईसाई, ये शब्द
भी नहीं सुने थे। फिर क्यों यहूदी उनके इतने खिलाफ
थे? यह सोचने जैसी बात है, आखिर क्यों ? न
तो ईसाईयों के पास इस सवाल का ठीक-ठाक
जवाबा है और न ही यहूदियों के पास। क्योंकि इस
व्यक्ति ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया।
ईसा उतने ही निर्दोष थे
जितनी कि कल्पना की जा सकती है।
पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्म था। पढ़े-लिखे
यहूदियों और चतुर रबाईयों ने स्पष्ट देख
लिया था कि वे पूरब से विचार ले रहे हैं, जो कि गैर
यहूदी हैं। वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ले
रहे हैं। और यदि इस दृष्टिकोण से देखो तो तुम्हें
समझ आएगा कि क्यों वे बारा-बार कहते हैं- ' अतीत
के पैगंबरों ने तुमसे कहा था कि यदि कोई तुम पर
क्रोध करे, हिंसा करे तो आंख के बदले में आंख लेने
और ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार रहना।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्हें चोट
पहुंचाता है, एक गाल पर चांटा मारता है तो उसे
अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।' यह पूर्णत: गैर
यहूदी बात है। उन्होंने ये बातें गौतम बुद्ध और
महावीर की देशनाओं से सीखी थीं।
ईसा जब भारत आए थे-तब बौद्ध धर्म बहुत जीवंत
था, यद्यपि बुद्ध की मृत्यु हो चुकी थी। गौतम बुद्ध
के पांच सौ साल बाद जीसस यहां आए थे। पर बुद्ध ने
इतना विराट आंदोलन, इतना बड़ा तूफान
खड़ा किया था कि तब तक भी पूरा मुल्क उसमें
डूबा हुआ था। बुद्ध की करुणा, क्षमा और प्रेम के
उपदेशों को भारत पिए हुआ था।
जीसस कहते हैं कि अतीत के पैगंबरों द्वारा यह
कहा गया था। कौन हैं ये पुराने पैगंबर? वे
सभी प्राचीन यहूदी पैगंबर हैं: इजेकिएल, इलिजाह,
मोसेस,- कि ईश्वर बहुत ही हिंसक है और वह
कभी क्षमा नहीं करता है!? यहां तक कि प्राचीन
यहूदी पैगंबरों ने ईश्वर के मुंह से ये शब्द
भी कहलवा दिए हैं कि मैं कोई सज्जन पुरुष नहीं हूं,
तुम्हारा चाचा नहीं हूं। मैं बहुत क्रोधी और ईर्ष्यालु
हूं, और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं है, वे सब मेरे
शत्रु हैं। पुराने टेस्टामेंट में ईश्वर के ये वचन हैं। और
ईसा मसीह कहते हैं, मैं तुमसे कहता हूं
कि परमात्मा प्रेम है। यह ख्याल उन्हें कहां से
आया कि परमात्मा प्रेम है? गौतम बुद्ध
की शिक्षाओं के सिवाए दुनिया में
कहीं भी परमात्मा को प्रेम कहने का कोई और उल्लेख
नहीं है। उन 17 वर्षों में जीसस इजिप्त, भारत,
लद्दाख और तिब्बत की यात्रा करते रहे।
यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परंपरा में बिल्कुल
अपरिचित और अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे। न
केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूदी धारणाओं के
एकदम से विपरीत थीं। तुम्हें जानकर आश्चर्य
होगा कि अंतत: उनकी मृत्यु भी भारत में हुई! और
ईसाई रिकार्ड्स इस तथ्य को नजरअंदाज करते रहे हैं।
यदि उनकी बात सच है कि जीसस पुनर्जीवित हुए थे
तो फिर पुनर्जीवित होने के बाद उनका क्या हुआ?
आजकल वे कहां हैं ? क्योंकि उनकी मृत्यु का तो कोई
उल्लेख है ही नहीं !
सच्चाई यह है कि वे कभी पुनर्जीवित नहीं हुए।
वास्तव में वे सूली पर कभी मरे ही नहीं थे।
क्योंकि यहूदियों की सूली आदमी को मारने
की सर्वाधिक बेहूदी तरकीब है। उसमें आदमी को मरने
में करीब-करीब 48 घंटे लग जाते हैं। चूंकि हाथों में
और पैरों में कीलें ठोंक दी जाती हैं तो बूंद-बूंद करके
उनसे खून टपकता रहता है। यदि आदमी स्वस्थ है
तो 60 घंटे से भी ज्यादा लोग जीवित रहे, ऐसे
उल्लेख हैं। औसत 48 घंटे तो लग ही जाते हैं। और
जीसस को तो सिर्फ छह घंटे बाद ही सूली से उतार
दिया गया था। यहूदी सूली पर कोई भी छह घंटे में
कभी नहीं मरा है, कोई मर ही नहीं सकता है।
यह एक मिलीभगत थी, जीसस के शिष्यों की पोंटियस
पॉयलट के साथ। पोंटियस यहूदी नहीं था, वो रोमन
वायसराय था। जूडिया उन दिनों रोमन साम्राज्य के
अधीन था। निर्दोष जीसस की हत्या में रोमन
वायसराय पोंटियस को कोई रुचि नहीं थी। पोंटियस के
दस्तखत के बगैर यह हत्या नहीं हो सकती थी।
पोंटियस को अपराध भाव अनुभव हो रहा था कि वह
इस भद्दे और क्रूर नाटक में भाग ले रहा है।
चूंकि पूरी यहूदी भीड़ पीछे पड़ी थी कि जीसस
को सूली लगनी चाहिए। जीसस वहां एक मुद्दा बन
चुका था। पोंटियस पॉयलट दुविधा में था। यदि वह
जीसस को छोड़ देता है तो वह पूरी जूडिया को,
जो कि यहूदी है, अपना दुश्मन बना लेता है। यह
कूटनीतिक नहीं होगा। और यदि वह जीसस को सूली दे
देता है तो उसे सारे देश का समर्थन तो मिल जाएगा,
मगर उसके स्वयं के अंत:करण में एक घाव छूट
जाएगा कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण एक
निरपराध व्यक्ति की हत्या की गई, जिसने कुछ
भी गलत नहीं किया था।
तो पोंटियस ने जीसस के शिष्यों के साथ मिलकर यह
व्यवस्था की कि शुक्रवार को जितनी संभव हो सके
उतनी देर से सूली दी जाए। चूंकि सूर्यास्त होते
ही शुक्रवार की शाम को यहूदी सब प्रकार
का कामधाम बंद कर देते हैं, फिर शनिवार को कुछ
भी काम नहीं होता, वह उनका पवित्र दिन है।
यद्यपि सूली दी जानी थी शुक्रवार की सुबह, पर उसे
स्थगित किया जाता रहा।
ब्यूरोक्रेसी तो किसी भी कार्य में देर लगा सकती है।
अत: जीसस को दोपहर के बाद सूली पर
चढ़ाया गया और सूर्यास्त के पहले ही उन्हें जीवित
उतार लिया गया। यद्यपि वे बेहोश थे, क्योंकि शरीर
से रक्तस्राव हुआ था और कमजोरी आ गई थी।
पवित्र दिन यानि शनिवार के बाद रविवार
को यहूदी उन्हें पुन: सूली पर चढ़ाने वाले थे। जीसस के
देह को जिस गुफा में रखा गया था, वहां का चौकीदार
रोमन था न कि यहूदी। इसलिए यह संभव
हो सका कि जीसस के शिष्यगण उन्हें बाहर
आसानी से निकाल लाए और फिर जूडिया से बाहर ले
गए।
जीसस ने भारत में आना क्यों पसंद किया?
क्योंकि युवावास्था में भी वे वर्षों तक भारत में रह
चुके थे। उन्होंने अध्यात्म और ब्रह्म का परम स्वाद
इतनी निकटता से
चखा था कि वहीं दोबारा लौटना चाहा। तो जैसे ही वह
स्वस्थ हुए, भारत आए और फिर 112 साल की उम्र
तक जिए। कश्मीर में अभी भी उनकी कब्र है। उस पर
जो लिखा है, वह हिब्रू भाषा में है। स्मरण रहे, भारत
में कोई यहूदी नहीं रहते हैं। उस शिलालेख पर खुदा है,
जोशुआ- यह हिब्रू भाषा में ईसामसीह का नाम है।
जीसस जोशुआ का ग्रीक रुपांतरण है। जोशुआ
यहां आए- समय, तारीख वगैरह सब दी है। एक महान
सदगुरू, जो स्वयं को भेड़ों का गड़रिया पुकारते थे,
अपने शिष्यों के साथ शांतिपूर्वक 112 साल
की दीर्घायु तक यहांरहे। इसी वजह से वह स्थान
भेड़ों के चरवाहे का गांव कहलाने लगा। तुम
वहां जा सकते हो, वह शहर अभी भी है-पहलगाम,
उसका काश्मीरी में वही अर्थ है- गड़रिए का गांव
जीसस यहां रहना चाहते थे ताकि और अधिक आत्मिक
विकास कर सकें। एक छोटे से शिष्य समूह के साथ वे
रहना चाहते थे ताकि वे सभी शांति में, मौन में डूबकर
आध्यात्मिक प्रगति कर सकें। और उन्होंने
मरना भी यहीं चाहा, क्योंकि यदि तुम जीने
की कला जानते हो तो यहां (भारत में)जीवन एक
सौंदर्य है और यदि तुम मरने की कला जानते
हो तो यहां (भारत में)मरना भी अत्यंत अर्थपूर्ण है।
केवल भारत में ही मृत्यु की कला खोजी गई है, ठीक
वैसे ही जैसे जीने की कला खोजी गई है। वस्तुत:
तो वे एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं।
यहूदियों के पैगंबर मूसा ने भी भारत में ही देह
त्यागी थी | इससे भी अधिक आश्चर्यजनक तथ्य
यह है कि मूसा (मोजिज) ने भी भारत में ही आकर देह
त्यागी थी! उनकी और जीसस की समाधियां एक
ही स्थान में बनी हैं। शायद जीसस ने ही महान सदगुरू
मूसा के बगल वाला स्थान स्वयं के लिए चुना होगा।
पर मूसा ने क्यों कश्मीर में आकर मृत्यु में प्रवेश
किया?
मूसा ईश्वर के देश इजराइल की खोज में
यहूदियों को इजिप्त के बाहर ले गए थे। उन्हें 40
वर्ष लगे, जब इजराइल पहुंचकर उन्होंने
घोषणा की कि, यही वह जमीन है,
परमात्मा की जमीन, जिसका वादा किया गया था।
और मैं अब वृद्ध हो गया हूं और अवकाश
लेना चाहता हूं। हे नई पीढ़ी वालों, अब तुम सम्हालो!
मूसा ने जब इजिप्त से यात्रा प्रारंभ की थी तब
की पीढ़ी लगभग समाप्त हो चुकी थी। बूढ़े मरते गए,
जवान बूढ़े हो गए और नए बच्चे पैदा होते रहे। जिस
मूल समूह ने मूसा के साथ यात्रा की शुरुआत की थी,
वह बचा ही नहीं था। मूसा करीब-करीब एक
अजनबी की भांति अनुभव कर रहे थेा उन्होंने
युवा लोगों शासन और
व्यवस्था का कार्यभारा सौंपा और इजराइल से
विदा हो लिए। यह अजीब बात है
कि यहूदी धर्मशास्त्रों में भी, उनकी मृत्यु के संबंध
में , उनका क्या हुआ इस बारे में कोई उल्लेख नहीं है।
हमारे यहां (कश्मीर में ) उनकी कब्र है। उस
समाधि पर भी जो शिलालेख है, वह हिब्रू भाषा में
ही है। और पिछले चार हजार सालों से एक
यहूदी परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन
दोनों समाधियों की देखभाल कर रहा है।
मूसा भारत क्यों आना चाहते थे ? केवल मृत्यु के
लिए ? हां, कई रहस्यों में से एक रहस्य यह भी है
कि यदि तुम्हारी मृत्यु एक बुद्धक्षेत्र में हो सके,
जहां केवल मानवीय ही नहीं, वरन
भगवत्ता की ऊर्जा तरंगें हों, तो तुम्हारी मृत्यु
भी एक उत्सव और निर्वाण बन जाती है।
सदियों से सारी दुनिया के साधक इस धरती पर आते
रहे हैं। यह देश दरिद्र है, उसके पास भेंट देने को कुछ
भी नहीं, पर जो संवेदनशील हैं, उनके लिए इससे अधिक
समृद्ध कौम इस पृथ्वी पर कहीं नहीं हैं। लेकिन वह
समृद्धि आंतरिक है।